Mayawati की बसपा : सियासी माहौल बनाने की जद्दोजहद में नाकाम

कांशीराम ने 1984 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की नींव रखी थी, जिसका मकसद दलित और पिछड़े वर्गों में राजनीतिक चेतना जगाना और उन्हें सत्ता में भागीदार बनाना था। इस सपने को मायावती ने साकार किया और चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनकर दलित सियासत का चमकता चेहरा बनीं। दो दशकों तक बसपा का दलित वोटों पर एकछत्र राज रहा, लेकिन 2012 के बाद से पार्टी का सियासी ग्राफ लगातार गिरता गया। आज मायावती एक के बाद एक बैठकें कर रही हैं, संगठन में फेरबदल कर रही हैं, और अपने भतीजे आकाश आनंद को पार्टी में नंबर दो की जिम्मेदारी सौंप रही हैं, लेकिन इसके बावजूद बसपा सियासी माहौल बनाने में नाकाम रही है। आखिर क्यों?

बसपा का खिसकता जनाधार

बसपा की स्थिति आज कमजोर हो चुकी है। 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में पार्टी सिर्फ एक सीट जीत पाई और उसका वोट शेयर 13% तक सिमट गया। 2024 के लोकसभा चुनाव में तो बसपा का खाता भी नहीं खुला, और वोट शेयर घटकर 9.39% रह गया। पहले गैर-जाटव दलित वोट बीजेपी की ओर खिसक गया था, और अब जाटव वोटों में भी सेंधमारी हो रही है। मायावती इसे रोकने के लिए लगातार कोशिश कर रही हैं। ओबीसी नेताओं को जोड़ने का मिशन शुरू किया गया है, और संगठन को बूथ से लेकर जिला स्तर तक मजबूत करने की कोशिश हो रही है। फिर भी, सियासी हवा बसपा के पक्ष में नहीं बन पा रही।

सियासी माहौल बनाने में नाकामी

मायावती ने संगठन को मजबूत करने के लिए कई कदम उठाए हैं। बामसेफ को फिर से सक्रिय किया गया, कैडर कैंप आयोजित हो रहे हैं, और गांव-गांव रैलियां निकाली जा रही हैं। आकाश आनंद को चीफ नेशनल कोऑर्डिनेटर बनाकर पार्टी में नई ऊर्जा लाने की कोशिश की गई है। लेकिन ये सारी कोशिशें सियासी नैरेटिव गढ़ने में नाकाम रही हैं। बसपा न तो कोई मजबूत मुद्दा उठा पा रही है और न ही जनता के बीच विश्वास जगा पा रही है

सियासत बदल चुकी है, लेकिन मायावती नहीं

पॉलिटकल एक्सपर्ट वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मिश्र का कहना है कि देश की सियासत अब पूरी तरह बदल चुकी है, लेकिन मायावती पुराने तौर-तरीकों से ही राजनीति कर रही हैं। कांशीराम ने दलित और पिछड़ों के उत्थान के लिए बसपा बनाई थी, और मायावती ने इसका लाभ उठाकर चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की। लेकिन आज दलित और पिछड़े वर्ग की आकांक्षाएं बढ़ चुकी हैं। वे प्रतिनिधित्व और सम्मान चाहते हैं। मायावती का जनता से सीधा संपर्क टूट गया है। उनकी रणनीति अब सिर्फ प्रेस कॉन्फ्रेंस या ट्वीट तक सीमित है, जिससे जनता के साथ उनका भावनात्मक जुड़ाव कमजोर हुआ है।

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बीजेपी की बी-टीम का नैरेटिव

मायावती के सामने सबसे बड़ी चुनौती है विपक्षी दलों द्वारा गढ़ा गया “बीजेपी की बी-टीम” का नैरेटिव। कई मौकों पर मायावती का रुख बीजेपी के प्रति नरम दिखा, जिससे यह धारणा बनी कि बसपा बीजेपी की सहयोगी है। इस नैरेटिव ने मुस्लिम वोटरों को पूरी तरह बसपा से दूर कर दिया। साथ ही, बीजेपी-विरोधी वोट भी बसपा से छिटक गए। इस धारणा को तोड़े बिना बसपा का पुराना रुतबा हासिल करना मुश्किल है।

समीकरण पर ज्यादा जोर

मायावती संघर्ष के बजाय जातीय समीकरणों पर ज्यादा भरोसा करती हैं। उन्होंने दलित-ब्राह्मण या दलित-मुस्लिम जैसे गठजोड़ बनाकर “सोशल इंजीनियरिंग” की रणनीति अपनाई, लेकिन नरेंद्र मोदी के उभरने के बाद यह फॉर्मूला टूट चुका है। मायावती का ओवर कॉन्फिडेंस कि उनका कोर वोटर कभी उनसे दूर नहीं जाएगा, अब गलत साबित हो रहा है। जाटव के साथ-साथ गैर-जाटव दलित और ओबीसी वोट भी बसपा से खिसक गए हैं।

कोर वोटबैंक को वापस लाने की चुनौती

बसपा को फिर से मजबूत करने के लिए मायावती को पहले अपने कोर दलित वोटबैंक को वापस लाना होगा। यह तभी संभव है जब जनता को विश्वास हो कि बसपा सत्ता में आ सकती है। इसके लिए पार्टी को जनता के सुख-दुख में साथ खड़ा होना होगा। 2024 के लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन ने संविधान और आरक्षण जैसे मुद्दों को उठाकर बीजेपी के खिलाफ मजबूत नैरेटिव बनाया था। बसपा को भी आंबेडकर की विचारधारा को आधार बनाकर दलित, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदायों में मजबूत कैडर तैयार करना होगा।

गठबंधन की अनिवार्यता

आज की सियासत में गठबंधन का महत्व बढ़ गया है। बीजेपी और कांग्रेस दोनों को गठबंधन की जरूरत पड़ रही है। ऐसे में मायावती का अकेले चुनाव लड़ना सियासी तौर पर नुकसानदेह साबित हो रहा है। वोटिंग पैटर्न बदल चुका है—एक तरफ बीजेपी को जिताने वाले हैं, दूसरी तरफ उसे हराने वाले। मायावती को किसी एक खेमे—चाहे बीजेपी के साथ हो या कांग्रेस के साथ—को चुनना होगा। बिना गठबंधन के बसपा का सियासी सफर मुश्किल है।

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